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Home›सुर्खियां›हिन्दी राष्ट्रवादी कविता एवं सांस्कृतिक चेतना पर विचार-विमर्श संगोष्ठी का आयोजन किया गया,

हिन्दी राष्ट्रवादी कविता एवं सांस्कृतिक चेतना पर विचार-विमर्श संगोष्ठी का आयोजन किया गया,

By Manish Srivastava
November 21, 2024
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काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे हिन्दी राष्ट्रवादी कवियों की साहित्यिक-सामाजिक विरासत: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में’ विषयक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रतिभागी सत्र की अध्यक्षता प्रो. विजय कुमार शाण्डिल्य ने की। उन्होंने अपने वक्तव्य में मानस के मंगलाचरण के माध्यम से तुलसी की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना को रेखांकित किया। विशाखापट्टनम से आयीं प्रो. जे विजया भारती ने उत्तर-दक्षिण के भाषायी सौहार्द पर समुचित टिप्पणी की, साथ ही शोधपत्रों पर अपनी संक्षिप्त समीक्षात्मक टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। प्रो. संतोष कुमार सिंह ने सुमधुर गीत प्रस्तुत करते हुए शोधपत्र वाचन करने वाले प्रतिभागियों की सराहना की। डॉ. किंगसन सिंह पटेल ने स्त्रीवादी दृष्टि से राष्ट्रवादी कविता में महिलाओं के योगदान पर प्रकाश डाला। डॉ. अनुराधा शुक्ला ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तत्त्वों को रेखांकित करते हुए आधुनिक हिन्दी कविता की पंक्तियों के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट की। रायबरेली से आये अवधेश शर्मा ने राष्ट्रवाद शब्द की अवधारणा स्पष्ट की तथा अपने सुमधुर कण्ठ से कविताओं का पाठ कर राष्ट्रवादी कवियों को स्मरण किया। इस सत्र में देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आये हुए शोधार्थियों ने अपना शोधपत्रों का वाचन किया।
सत्र का संचालन अजीत प्रताप सिंह ने व धन्यवाद ज्ञापन सर्वेश मिश्र ने किया।

तृतीय अकादमिक सत्र― ‘राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा: विविध स्वर’ विषय पर केन्द्रित रहा। सत्र की अध्यक्षता प्रो. विनय कुमार सिंह ने की। विषय पर बोलते हुए डॉ. सुशील यादव ने भारत-भारती, पुष्प की अभिलाषा जैसी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रवादी कविता का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय आन्दोलन में त्याग और बलिदान करने वालों के लिए ही दिनकर ने कहा है ‘कलम आज उनकी जय बोल’। उन्होंने राष्ट्रवादी कविताओं का सुमधुर पाठ भी किया।
डॉ. सूर्यप्रकाश पारिक ने सिनेमा के सापेक्ष साहित्य-समाज के सम्बन्ध की चर्चा की। नेशन और राष्ट्र में फ़र्क़ को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि नेशन बहुधा एकजातीय होता है लेकिन इससे अलग भारतीय राष्ट्र का रूप बहुजातीय है। युवाओं को दिनकर, हरिऔध, पन्त की कविता के माध्यम से राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित किया।
डॉ. शंभुनाथ मिश्र ने रामायण, अथर्ववेद जैसे प्राचीन सन्दर्भों के हवाले से आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक चले आ रहे राष्ट्रीय चिन्तन की रूपरेखा प्रस्तुत की। नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ , गुरुभक्त सिंह भक्त जैसे कवियों की भारतीय मानसिकता को स्पष्ट किया। उन्होंने रामेश्वरी देवी ‘चकोरी’ जैसी महिला कवियों के माध्यम से राष्ट्रवादी कविता के स्त्री स्वर को प्रस्तुत किया।
डॉ. राजीव रंजन प्रसाद ने ‘हिन्दी राष्ट्रवादी कवियों की साहित्यिक समाजिक विरासत’, अ-हिन्दी भाषी पूर्वोत्तर व काशी के सम्बन्ध को रेखांकित किया। डॉ. राजीव रंजन ने पत्रकारिता और राष्ट्रवादी कविता के परस्पर सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान की चर्चा की।
सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. विनय कुमार सिंह ने नवजागरण और राष्ट्रवाद के अन्तर्सम्बन्धों की चर्चा की। उन्होंने राष्ट्रवादी कवियों की कविता में आधी आबादी की आवाज़ को मिली जगह की ओर संकेत किया। मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सुभद्रा कुमारी चौहान व तमिल कवि सुब्रह्मण्य भारती के सन्दर्भों से राष्ट्रवादी कविता के अखिल भारतीय स्वरूप को स्पष्ट किया।
इस सत्र का संचालन डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने और धन्यवाद ज्ञान डॉ. रविशंकर सोनकर ने किया।चतुर्थ अकदामिक सत्र का विषय रहा―’हिन्दी राष्ट्रवादी कविता: भारतीय जीवनदृष्टि और युगबोध’ । सत्र की अध्यक्षता प्रो. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने की।
डॉ. शुभांगी श्रीवास्तव ने देशभक्ति और राष्ट्रवाद के अन्तर को स्पष्ट करते हुए रवीन्द्रनाथ ठाकुर के राष्ट्रवादी विचारों का परिचय दिया। उन्होंने राष्ट्रवाद की संकीर्ण समझ का प्रत्याख्यान करते हुए कहा कि इसे मात्र दक्षिणपंथ तक सीमित नहीं कर दिया जाना चाहिए। डॉ० शुभांगी ने रासोकाव्य, चन्दबरदाई, भूषण, प्रसाद जैसे कवियों के माध्यम से आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद और रघुवीर सहाय तक विकसित होती रही राष्ट्रवादी कविता का विहंगम परिचय दिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवादी कविता में हिन्दू शब्द मात्र दिख जाने से उसे मुस्लिम आबादी के विरुद्ध समझ लेना सतही सोच है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी कविता हम सभी के लिए महत्त्वपूर्ण है उसे संकुचित मानसिकता से नहीं देखा जाना चाहिए।
प्रो. सत्यपाल शर्मा ने भारतीय और पाश्चात्य राष्ट्रवाद के बीच अन्तर को रेखांकित किया। उन्होंने कहा अनादि काल से विकसित होता आ रहा भारतीय राष्ट्रवाद साहचर्य केन्द्रित रहा है। भारतीय राष्ट्रवाद संस्कृति केन्द्रित है जबकि पाश्चात्य राष्ट्रवाद राजनीति केन्द्रित है जिसकी परिणति विस्तारवाद और साम्राज्यवाद में होती है। भारतीय राष्ट्रवाद कभी भी विस्तारवादी नहीं रहा है। उन्होंने दिनकर की कविता के माध्यम से राष्ट्रवाद, हिंसा और अहिंसा के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या की।
प्रो. हरीश कुमार शर्मा ने विवेकानन्द के दर्शन के माध्यम से भारतीय पुनर्जागरण व राष्ट्रवादी कविता के सम्बन्धों को स्पष्ट किया।
सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो० वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने सभी वक्ताओं के वक्तव्यों पर समीक्षात्मक टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि यूँ तो वैदिक काल से लेकर, आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल में भी राष्ट्रीय चेतना देखने को मिल जाती है। लेकिन जिस राष्ट्रवादी काव्य पर हम चर्चा कर रहे वह भारतेन्दु से आधुनिक काल में ही शुरू हुआ। उन्होंने इसपर ज़ोर दिया कि भारतीय राष्ट्रवाद सिर्फ़ राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक भी है।
सत्र का संचालन डॉ. विन्ध्याचल यादव ने व धन्यवाद ज्ञापन डॉ. राजकुमार मीणा ने किया।

समापन सत्र―

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो० वशिष्ठ द्विवेदी ने समापन सत्र में स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने संगोष्ठी की सफलता के लिए आयोजकों की सरहाना करते हुए कहा कि राष्ट्रवादी काव्यधारा के अचर्चित कवियों की भी चर्चा होना इसकी उपलब्धि रही।
समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय प्रमुख प्रो० मायाशंकर पाण्डेय ने जापानी राष्ट्रवाद में शिंटोवाद के पुनर्नवा की चर्चा की। राष्ट्रवाद ने अपने अतीत के गौरव को पुनर्रचित किया। जापान और भारत के राष्ट्रवाद में फ़र्क़ यह है कि वहाँ हिंसा की मुखरता अधिक है, भारत में अहिंसा केन्द्र में रही।
मुख्य अतिथि, उत्तर प्रदेश राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० सत्यकाम ने दीनदयाल उपाध्याय के सन्दर्भ से इस पर ज़ोर दिया कि, ‘यह आवश्यक है कि हम अपनी राष्ट्रीय पहचान के बारे में सोचें, इसके बिना स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है।’ उन्होंने कहा कि राष्ट्रवादी कविता को वीर रस, ओज और जोश के भाव तक सीमित कर देना एक रूढ़ि है। उन्होंने निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ और केदारनाथ सिंह की ‘बनारस’ कविता के माध्यम से कहा कि जो भी कविता देश के साझा मूल्यों को साम्बोधित करती है वह राष्ट्रवादी कविता है। प्रो० सत्यकाम ने कहा कि धर्म भारत को एकसूत्र में जोड़ता है। वह धर्म ‘रिलीजिन’ से अलग है। वह धर्म है भारतीयता। उन्होंने राष्ट्रवादी कविता में उर्दू शायरी के योगदान का भी उल्लेख किया।
समापन सत्र में डॉ० सुनीता चन्द्रा भी उपस्थित रहीं।
समापन सत्र का संचालन डॉ० विवेक सिंह ने व धन्यवाद ज्ञापन डॉ० सत्यप्रकाश पाल ने किया।

कार्यक्रम के समाप्ति पर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति जस्टिस गिरिधर मालवीय के निधन उपरांत सभी ने मौन धारण कर श्रद्धांजलि दी गयी।

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